पुरानी पेंशन व्यवस्था (ओपीएस) देश की राजकोषीय स्थिरता के लिए एक अहम चुनौती थी। पहले पहल तो राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था (एनपीएस) को देखकर लगा था कि वह इस समस्या का एक व्यापक हल बन सकती है। परंतु अब सैन्यकर्मियों, पश्चिम बंगाल, राजस्थान तथा कुछ अन्य राज्यों में एनपीएस नदारद है। यह राजकोषीय परिदृश्य में एक अहम समस्या की तरह नजर आने लगी है। राजकोषीय तनाव, इस तनाव में बढ़ते पेंशन भुगतान की भूमिका तथा इसे एनपीएस के माध्यम से हल करने के मामले में सांस्थानिक स्मृति कमजोर रही है।

एनपीएस सन 1990 के दशक के राजकोषीय संकट की उपज है। सैन्य एवं असैन्य दोनों तरह के पेंशन भुगतान विस्फोटक गति से बढ़ रहे थे। कुछ राज्यों में पेंशनधारकों को पेंशन मिलने में भी देरी हो रही थी। यह उन लोगों के लिए बहुत परेशान करने वाला अनुभव था जिन्हें तयशुदा पेंशन देने का वादा किया गया था। बात एकदम स्पष्ट थी, संकट से जूझ रही सरकारों के वादे पूरी तरह भरोसेमंद नहीं थे।

भविष्य के अनुमानों ने दिखाया कि हालात आगे चलकर और बिगडऩे वाले थे। लोगों की आयु बेहतर हुई है और ऐसे में सरकार के लिए पुरानी शैली में पेंशन देने का वादा व्यावहारिक नहीं था। अगर कोई नियोक्ता 65 वर्ष की अवस्था के हिसाब से पेंशन का बोझ वहन कर सकता है तो कर्मचारी की आयु में 10-20 वर्ष का इजाफा यकीनन उसके लिए हालात मुश्किल बना सकता है।

इससे नीति निर्माताओं के सामने कठिन चयन के हालात बनते हैं। रक्षा क्षेत्र में तो यह और भी साफ नजर आता है। देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की 2.5 फीसदी राशि रक्षा क्षेत्र पर व्यय की जा सकती है। इससे तयशुदा संसाधन मिलेंगे और इसके अंतर्गत हमें दो चीजों के बीच चयन करना होगा। पहली, एक छोटी सी लेकिन बेहतर सेना जहां जवानों के बचने और लड़ाई जीतने की संभावना ज्यादा हो और दूसरा, उदार पेंशन वाली एक कमजोर सेना।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की पहली सरकार और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के नेतृत्व ने इन मुश्किल चयन पर नजर डाली और पेंशन सुधार के रूप में राजनीतिक दृष्टि से कठिन रास्ता चुना। एक अफसरशाह के नजरिये से यह बेहतर था कि सेवानिवृत्ति के समय वित्तीय संपत्ति का एक हिस्सा मिले और उम्रदराज होने पर की जाने वाली वित्तीय योजना को नियोक्ता की भविष्य की वित्तीय समस्याओं से अलग कर दिया जाए।

इन निर्णयों को तत्कालीन राजकोषीय तनाव ने जन्म दिया था। केंद्र सरकार के राजकोषीय तनाव को सबसे बेहतर तरीके से शुद्ध कर राजस्व में ब्याज भुगतान की हिस्सेदारी के रूप में आंका जाता है। सन 2001-02 में यह 80 फीसदी के उच्चतम स्तर पर थी। सन 2007-08 में इसमें सुधार हुआ और यह 39 फीसदी रह गया। परंतु 2020-21 में यह दोबारा बढ़कर 48 फीसदी के स्तर पर आ गया, हालांकि इस समय ब्याज दरें कम थीं।  कमजोर वृद्धि और राजकोषीय व्यवस्था में कठिनाइयों की बदौलत आने वाले दशक मुश्किल हो सकते हैं। यह पुरानी पेंशन जैसी व्यवस्थाओं की ओर लौटने का सही समय नहीं है।

बढ़ती जीवन संभाव्यता भी एक समस्या है। सन 2002 तक पुरानी पेंशन योजना अव्यावहारिक हो चुकी थी। तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने एनपीएस पेश करने का निर्णय लिया। बीते दो दशक में लोगों की आयु लगातार बढ़ी है। अगले चार दशक में इसमें और इजाफा होगा। पुरानी पेंशन योजना को लेकर आकलन करते समय देश में लोगों की बेहतर स्वास्थ्य परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

पेंशन सुधार आसान काम नहीं था क्योंकि इन सुधारों की प्रक्रिया और इनका लाभ सामने आने के बीच बहुत लंबा अंतराल था। एक जनवरी, 2004 से शुरू होने वाली पीढ़ी के लिए एनपीएस सुधार राजकोषीय दृष्टि से महंगा है। इसमें पुरानी पीढ़ी को पुरानी पेंशन भी देनी है और नई पीढ़ी को एनपीएस योगदान। एनपीएस का वास्तविक सुधार भविष्य में देखने को मिलेगा जब राजकोष्ीय सेहत में वास्तव में सुधार देखने को मिलेगा।

इसलिए जब हम राज्यों के पेंशन व्यय को देखते हैं तो जाहिर तौर पर एनपीएस सुधारों से कोई लाभ नहीं दिखता। सरकार के कुल राजस्व व्यय में पेंशन व्यय की हिस्सेदारी 1991-92 के चार फीसदी से बढ़कर एनपीएस सुधारों तक 10 फीसदी हो चुकी थी जो अब बढ़कर 12 प्रतिशत हो चुकी है। राज्य के पेंशन भुगतान की सालाना वृद्धि निरंतर नॉमिनल  जीडीपी से अधिक बनी रही। कुछ राज्यों में एनपीएस समाप्त होने तथा रक्षा पेंशन के जारी रहने के साथ यह हिस्सेदारी दशकों तक बढ़ती रहेगी।

इसके विपरीत एनपीएस वाले राज्यों में करीब 17 वर्षों में एनपीएस का लाभ नजर आने लगेगा। कुल व्यय में पेंशन व्यय की हिस्सेदारी पहले बढऩी बंद होगी और फिर वह धीरे-धीरे शून्य हो जाएगी।

कहा जा सकता है कि यहां काफी कुछ दांव पर लगा है: यानी राज्य सरकारों के मौजूदा राजस्व व्यय का 12 फीसदी हिस्सा। इसमें आगे और इजाफा होगा और इस बारे में कोई अनुमान नहीं है कि यह कितना बढ़ेगा। वहीं अगर सरकारी संगठन एनपीएस के साथ बने रहें तो समय के साथ यह शून्य भी हो सकता है।

यह पूरी दास्तान सुधारों की प्रक्रिया को लेकर हमें सतर्क करती है। हमारे गणराज्य में होने वाले सुधारों के अन्य पहलुओं की तरह पेंशन सुधार का काम भी पेंशन सुधारों की गुणवत्ता से तय होगा। सन 1990 और 2000 के दशक में पेंशन सुधारों को लेकर केंद्रित समुदाय था। कई लोग इस विषय पर विचार करते थे, इस पर कई पर्चे लिखे गए और इसे लेकर काफी चर्चा भी हुई। इसी समुदाय ने एनपीएस तैयार किया और उसका क्रियान्वयन भी किया।

नीति के कई अन्य तत्त्वों की तरह पेंशन में भी उस नीतिगत समुदाय ने नीतिगत प्रक्रिया की बौद्धिक बुनियाद को हटा दिया। इसका बाद के वर्षों में नीतिगत नतीजों पर बुरा असर हुआ। एक अच्छा नीतिगत ढांचा स्थापित करनेे का अर्थ यह भी है कि कभी काम पूरा होने की घोषणा न की जाए। हर क्षेत्र को एक विशिष्ट नीतिगत समुदाय की आवश्यकता होती है जो जरूरी समकालीन विषयों का विश्लेषण करे तथा विचार करे।  उसका यह भी दायित्व हो कि वह संस्थागत स्मृति को एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक भी ले जाए।