अंडरवेट स्टील घोटाले पर पर्दा डालने के लिए रेल अधिकारियों ने ऐसा खेल खेला कि करोड़ों की जांच की जगह सामान खुर्द-बुर्द की फाइल केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) को जांच के लिए दे दी गई। रेलवे बोर्ड के मेंबर इलेक्ट्रिकल उस समय नहीं चाहते थे कि जम्मू से कटरा, गाजियाबाद से मुरादाबाद और कोझिकोड से कन्नूर रेलवे के विद्युतीकरण में अंडरवेट स्टील घोटाले की जांच सीबीआइ तक पहुंच सके। ऐसे में जम्मू से उधमपुर कटरा के ही सेक्शन का एक अन्य मामला सीबीआइ को भेज दिया गया, जिस संबंध में आठ जुलाई 2019 को मुकदमा भी दर्ज हुआ।

रेलवे के ग्यारह अधिकारियों और कंपनी के खिलाफ केस दर्ज किया गया। ढाई साल में सीबीआइ की जांच कहां तक पहुंची है, इसका तो पता नहीं चल सका, लेकिन इसकी आड़ में अंडरवेट स्टील घोटाले का मामला विभागीय जांच तक ही सिमटा दिया गया। रेल अधिकारियों को मेजर चार्जशीट जारी की गई, लेकिन रेलवे के करोड़ों के राजस्व का नुकसान और यात्रियों की सुरक्षा से खिलवाड़ करने वाले अधिकारी सलाखों के पीछे नहीं जा सके। रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के मंत्रालय संभालने के बाद कई बदलाव किए, ऐसे में रेलमंत्री से ही उम्मीद जगी है कि अंडरवेट स्टील घोटाले की जांच किसी एजेंसी को सौंपकर सच को सामने लाएंगे। रेलवे बोर्ड की विजिलेंस जांच में स्पष्ट हो चुका है कि रेलवे में अंडरवेट स्टील की सप्लाई की गई। विजिलेंस को भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत जांच करने की शक्तियां नहीं हैं। इसलिए उनकी जांच में अनियमितताओं का खुलासा तो हो गया, लेकिन दागी कंपनी और अफसरों के बीच में साठगांठ की परतें नहीं खुल पाईं।

इस तरह दूसरे मामले को भेजा सीबीआइ के पास

वर्ष 2018 में अंडरवेट स्टील घोटाले की गूंज प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंच गई थी। रेल मंत्रालय से जवाब तलब किया गया, जिसके बाद इलाहाबाद स्थित केंद्रीय रेल विद्युतीकरण संगठन (कोर) की फाइलें हिल गईं। कोर की रिपोर्टिंग मेंबर इलेक्ट्रिकल को थीं, इसलिए उस समय उनका इस प्रकरण में पूरा दखल रहा। महाप्रबंधक और सीनियर डिप्टी जनरल मैनेजर (एसडीजीएम ) ने उन्हीं के आदेशों पर फाइलें हिलाईं।

अंडरवेट स्टील घोटाले की जगह जम्मू उधमपुर सेक्शन के ही एक मामले की फाइल जांच के लिए सीबीआइ को सौंप दी। इस फाइल में बताया गया कि किस तरह 7.58 करोड़ के टेंडर को 11.11 करोड तक पहुंचा दिया गया। अंबाला से चीफ प्रोजेक्ट डायरेक्टर ने साल 2010 में जम्मू-उधमपुर विद्युतीकरण का प्रोजेक्ट मुंबई की क्वालिटी इंजीनियर्स कंपनी को अलाट किया था। रेलवे अफसरों ने तकनीकी कारणों का हवाला देकर टेंडर की कीमत 11 करोड़ तक पहुंचा दी। जबकि यह कार्य आठ करोड़ 22 लाख 75 हजार 617 रुपये में ही पूरा हो गया था।

टेंडर की कीमत बढ़ाने के कारण कंपनी को फायदा मिलता रहा, क्योंकि टेंडर की कीमत के मुताबिक ही रेलवे कंपनी को राशि जारी करता रहा। इसके अलावा कंपनी को कापर, स्टील के स्ट्रक्चर आदि सामान दिया गया था, इसका भी प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद कोई पता नहीं चल पाया था। जबकि इस मामले की तरह अंडरवेट स्टील का मामला अहम था, लेकिन रेल अधिकारियों ने उस पर चुप्पी साधकर दूसरी फाइल भेजकर खेल रच दिया।