After supreme court, Patna High Court stayed reservation in promotion for SC/ST employees

पटना: अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के सरकारी कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण पर पटना हाइकोर्ट ने रोक लगा दी है. न्यायाधीश वी नाथ के एकलपीठ ने इस संबंध में  सोमवार को अपना फैसला सुनाते हुए 21 अगस्त, 2012 को जारी राज्य सरकार के उस संकल्प को रद्द कर दिया, जिसके आधार पर एससी-एसटी कर्मियों को परिणामी वरीयता के तहत प्रोन्नति में भी आरक्षण देने का निर्णय लिया गया था.

एकलपीठ ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकार को एम नागराज बनाम केंद्र सरकार के मामले में 10 अक्तूबर, 2006 को आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सही प्रकार अनुपालन करना चाहिए.

प्रधान अपर महाधिवक्ता ललित किशोर ने इसकी पुष्टि की है. सुशील कुमार सिंह एवं अन्य की ओर से दायर याचिका में अनुसूचित जाति और जनजाति को तीन स्तरों पर प्रोमोशन दिये जाने के सरकार के निर्णय को चुनौती दी गयी थी. दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद एकलपीठ ने 10 दिसंबर, 2014 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. सुनवाई के दौरान फैसला आने तक कोर्ट ने सभी कोटियों  के सरकारी कर्मचारियों के प्रोमोशन पर रोक लगा दी थी. हाइकोर्ट के इस फैसले पर साढ़े चार लाख सरकारी कर्मचारियों के रूटीन प्रोमोशन का रास्ता साफ हो गया है.
 पटना हाइकोर्ट ने सुशील कुमार सिंह एवं अन्य  की याचिका पर सुनवाई करते हुए पांच अगस्त, 2014 को जारी अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मियों  को  प्रोन्नति में आरक्षण देने संबंधी राज्य सरकार की अधिसूचना पर रोक लगा दी थी. इस आधार पर सामान्य प्रशासन विभाग ने 12 अगस्त , 2014 को सभी प्रकार के कर्मचारियों के प्रोमोशन पर रोक लगाने का आदेश जारी किया था. इसके तहत फिलहाल राज्य सरकार में सभी कोटियों के कर्मियों के प्रोमोशन पर रोक लगी थी. सुप्रीम कोर्ट ने 19 अक्तूबर, 2006 को एम नागराज बनाम संघ सरकार में अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण व वरीयता का लाभ दिये जाने के क्रम में तीन बिंदुओं पर आंकड़े एकत्र करने का निर्देश सरकार को दिया थी.

इन तीन बिंदुओं में पहला, पिछड़ापन, दूसरा नौकरियों एवं पदों पर प्रतिनिधित्व तथा  तीसरा  प्रोमोशन दिये जानेवाले पदों के लिए प्रशासनिक दक्षता शामिल थी. राज्य सरकार ने इसके लिए अनुसूचित जाति व जनजाति कल्याण विभाग को नोडल विभाग मानते हुए उसे इनसे संबंधित आंकड़े जुटाने का निर्देश दिया. विभाग ने अपनी एक रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपी, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों को प्रोमोशन में आरक्षण की वकालत करते हुए कहा गया कि इन वर्गो में पिछड़ापन है.इन सदस्यों को कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है. पिछड़ेपन के कारण सरकारी नौकरियों में इनकी संख्या कम है. साथ ही आरक्षण के कारण प्रशासनिक  दक्षता में भी कमी नहीं देखी गयी है. इसी आधार पर राज्य सरकार ने 21 अगस्त, 2012 को अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की थी.

सरकार करेगी पुनर्विचार याचिका दायर
राज्य सरकार हाइकोर्ट के एकलपीठ के इस फैसले  के खिलाफ अपील याचिका दायर करेगी. उच्च पदस्थ सूत्रों  ने सोमवार की शाम इसके संकेत दिये. सूत्रों ने बताया कि सरकार पहले से ही यह मान कर चल रही है कि सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मियों का प्रतिनिधित्व ठीक नहीं है और अब भी यह वर्ग पिछड़ा है. इसके बावजूद इस वर्ग के अधिकारियों में दक्षता की कमी नहीं है.इस आधार पर सरकार जल्द ही पुनर्विचार याचिका दायर करेगी. इसके लिए मुख्यमंत्री की सहमति ली जायेगी.
राज्य अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष विद्यानंद विकल ने कहा कि इस फैसले से अनुसूचित जाति के कर्मचारियों को उनके अधिकार से वंचित किया गया है. अनुसूचित जाति में अब भी पिछड़ापन है और उन्हें सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है, जबकि इस वर्ग के अधिकारी दक्ष हैं. ऐसे में सरकार को पुनर्विचार याचिका दायर करनी चाहिए. यदि सरकार की ओर से विलंब होता है, तो आयोग खुद सुप्रीम कोर्ट में हाइकोर्ट के एकलपीठ के फैसले के खिलाफ याचिका दायर करेगा.
क्या है मामला
19 अक्तूबर, 2006 : सुप्रीम कोर्ट ने एससी व एसटी कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण देने के क्रम में तीन बिंदुओं पर आंकड़े एकत्र करने का निर्देश दिया- पिछड़ापन, नौकरियों एवं पदों पर प्रतिनिधित्व और प्रोमोशन दिये जानेवाले पदों के लिए प्रशासनिक दक्षता
12 अगस्त, 2012 :  एससी एवं एसटी कल्याण विभाग (नोडल) की रिपोर्ट के आधार पर बिहार सरकार ने एससी व एसटी कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की
05 अगस्त, 2014 : सुशील कुमार सिंह एवं अन्य की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाइकोर्ट ने  एससी व एसटी कर्मचारियों को  प्रोमोशन में आरक्षण देने संबंधी राज्य सरकार की अधिसूचना पर रोक लगा दी
10 दिसंबर, 2014 : हाइकोर्ट की एकलपीठ ने दोनों पक्षों के तर्को को सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित कर लिया और फैसला लाने तक सभी कोटियों  के सरकारी कर्मचारियों के प्रोमोशन पर रोक लगा दी
सरकार ने कहा था, सही है प्रोमोशन में आरक्षण
तीन साल तक चली सुनवाई में राज्य सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट के वरीय अधिवक्ता आर पटवालिया ने अपना पक्ष रखा था. याचिकाकर्ता सुशील कुमार सिंह एवं अन्य की ओर से दायर सीडब्लयूजेसी 19114/2012 मामले में वरीय अधिवक्ता विनोद कुमार कंठ और विंध्याचल  सिंह ने बहस की थी. सरकारी वकील ने एम नागराज एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार मामले में 19 अक्तू बर, 2006 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले का हवाला देते हुए सरकारी नौकरियों में   प्रोमोशन की जोरदार वकालत की थी. पटवालिया का तर्क था कि सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों का प्रतिनिधित्व कम है. सरकारी वकील ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट  के निर्देश के आधार पर बिहार सरकार के कल्याण विभाग ने रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि छह दशकों के बाद भी अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों की प्रगति अन्य सामाजिक वर्गाें की तुलना में संतोषजनक नहीं है. सरकार ने इस रिपोर्ट के आधार पर 21 अगस्त, 2012 को  अनुसूचित जाति और जन जाति के कर्मियों को प्रोमोशन में आरक्षण देने का फैसला आगे तक बरकरार रखा.
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा गलत व्याख्या कर रही सरकार
दूसरी ओर याचिकाकर्ता  के वकीलों का तर्क था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण संविधान का उल्लंघन है. उनका तर्क था कि सरकार एम नागराज एवं बनाम केंद्र सरकार के फैसले की गलत व्याख्या कर रही है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रोमोशन देने के पहले पिछड़ेपन का स्टडी करने, संबंधित जातियों में गरीबी का प्रतिशत, नौकरियों एवं संबंधित पदों पर कितना प्रतिनिधित्व का आकलन तथा जिस पद पर प्रोमोशन दिया जा रहा है, उसके लिए संबंधित व्यक्ति में प्रशासनिक क्षमता होने की जांच अनिवार्य कही गयी है, जबकि राज्य सरकार इन सब चीजों को दरकिनार कर एक ही कर्मचारी को कई बार प्रोमोशन का लाभ दे रही है. याचिकाकर्ता के वकीलों का तर्क था कि बिना जातीय जनगणना के बाद ही यह आकलन किया जा सकता है कि किस कोटे की कितनी आबादी है और उसमें कितना पिछड़ापन है. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अनंत काल तक आरक्षण की अनुमति संविधान नहीं देता है. हालत यह है कि मुख्य अभियंता जैसे कई पद पूर्णत: आरक्षित हो चुके हैं. याचिकाकर्ता के वकीलों का कहना था कि नौकरियों में प्रवेश में आरक्षण मिलनी चाहिए. लेकिन, उसी व्यक्ति को अगले पद के लिए प्रोमोशन में आरक्षण मिलता है. जब वह ऊपर के पद पर पहुंचता है, तो उसे तीसरी बार भी आरक्षण का लाभ मिलता है. ऐसे में अनुसूचित जाति  और जनजाति कोटे के व्यक्तियों को अनंत काल तक प्रोमोशन दिये जाने की इजाजत नहीं संविधान देता है.